हर कतरा-ए-लहुं रंग-ए-हिना बनके छा गया,
तासीर-ए-लहुं यादे, दिल-ए-रूह खिला गया.
छाया आसमान-ए-ज़मीं, पत्ता पत्ता हिल गया,
खूश्बु-ए-रात रानी की, गुलाबों में मिला गया.
कर गये ज़िन्दगी को अस्त-ए-व्यस्त मेघ जैसी,
तो कभी बंसी वाले श्याम को स्वर्ण बना गया.
चाँद सूरज टिके रहे और टिका ध्रुव भी वहीँ,
मेरा समस्त जीवन को “हिना” जैसा कर गया.
चल अचल खड़े वहीँ, पशु पेड़ भी अड़े वहीँ,
छाया छुपती छाँव से वो रोशनी में दिखा गया.
मंद-मंद मद-भरी, हाले-डोले, इश्क-ए-जाम,
आँखों से पीकर और होंठों से वो पिलाते गया.
दिव्येश सुप्त अब सब कोशिशें और सारे वादे,
दिल को मेरे तृप्त करके मुजे सागर बना गया.
© दिव्येश जे. संघाणी
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